Badr was born in Faizabad, India. He is an alumnus of Aligarh Muslim University. He is married and has three sons Nusrat Badr, Masum Badr, Taiyeb Badr and a daughter Saba Badr. He lived in Aligarh university area during student time and teaching time. He also lived in Meerut, U.P When his house was burnt in riots. He lived in Delhi for some time and then permanently relocated to Bhopal.
Badr has written many Urdu ghazals. He is one of the most quoted shayar in Indian pop-culture.
इक शाम के साए तले बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं
कई सितारों को मैं जानता हूँ बचपन से
कहीं भी जाऊँ मिरे साथ साथ चलते हैं
काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
अपना दिल भी टटोल कर देखो
फासला बेवजह नही होता
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
गुफ़्तगू उनसे रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता
इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं
कभी कभी तो छलक पड़ती हैं यूँही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता
कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा
मुझे मालूम है क़िस्मत का लिक्खा भी बदलता है
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा
आँसूओं की जहाँ पायमाली रही
ऐसी बस्ती चराग़ों से ख़ाली रही
दुश्मनों की तरह उस से लड़ते रहे
अपनी चाहत भी कितनी निराली रही
जब कभी भी तुम्हारा ख़याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही
लब तरसते रहे इक हँसी के लिये
मेरी कश्ती मुसाफ़िर से ख़ाली रही
चाँद तारे सभी हम-सफ़र थे मगर
ज़िन्दगी रात थी रात काली रही
मेरे सीने पे ख़ुशबू ने सर रख दिया
मेरी बाँहों में फूलों की डाली रही
इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं
कभी कभी तो छलक पड़ती हैं यूँही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता
कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा
मुझे मालूम है क़िस्मत का लिक्खा भी बदलता है
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा
कभी यूं भी आ मेरीआंख में, कि मेरी नजर को खबर ना हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर ना हो
वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर ना हो
मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी ना उठे
सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर ना हो
ये गज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे खराबे की रौशनी, कभी बेचिराग ये घर ना हो
वो फ़िराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग बन के जला ना हो
कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोज़ान से दोनो कुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा ना हो
कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौफ़ दिल में जरा ना हो
मुझे अपनी कोई खबर ना हो, तुझे अपना कोई पता ना हो
वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला ना हो
तेरे इख्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज दे
यूं दुआयें मेरी कूबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ ना हो
कभी हम भी इस के करीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला ना हो
कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र ना हो
मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछडने का कभी डर ना हो
अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया
जिस को गले लगा लिया वो दूर हो गया
आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है
बेवफ़ाई कभी कभी करना
अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना
हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़्साना लिखता है
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मिरे पाँव शो’लों पे जलते रहे
कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए
कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा
ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है
दुनिया उंहीं फूलों कोपैरों से मसलती है
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है
लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख दे
यूँ याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है
आ जाता है ख़ुद खेँच कर दिल सीने से पटरी पर
जब रात की सरहद से इक रेल गुज़रती है
आँसू कभी पलकों पर ता देर नहीं रुकते
उड़ जाते हैं उए पंछी जब शाख़ लचकती है
ख़ुश रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये
बिछड़े हुए मिलते हैं जब बर्फ़ पिघलती है
चाँद कहते हैं किसे ख़ूब समझते होंगे
वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब समझते होंगे
चाँद कहते हैं किसे ख़ूब समझते होंगे
इतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे
मैं समझता था मुहब्बत की ज़बाँ ख़ुश्बू है
फूल से लोग इसे ख़ूब समझते होंगे
भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले
आज के प्यार को मायूब समझते होंगे
इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं मुझे उन का कोई पता नहीं
इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मिरा महबूब समझते होंगे
अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गए हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते
अजब चराग़ हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे
अजीब रात थी कल तुम भी आ के लौट गए
जब आ गए थे तो पल भर ठहर गए होते
अजीब शख़्स है नाराज़ हो के हँसता है
मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो ख़फ़ा ही लगे
बशीर बद्र पोएट्री इमेजेज
एक औरत से वफ़ा करने का ये तोहफ़ा मिला
जाने कितनी औरतों की बद-दुआएँ साथ हैं
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
कभी यूँ भी आ मिरी आँख में कि मिरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर इस के बाद सहर न हो
कमरे वीराँ आँगन ख़ाली फिर ये कैसी आवाज़ें
शायद मेरे दिल की धड़कन चुनी है इन दीवारों में
उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं
ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
इजाज़त हो तो मैं इक झूट बोलूँ
मुझे दुनिया से नफ़रत हो गई है
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
उस की आँखों को ग़ौर से देखो
मंदिरों में चराग़ जलते हैं
उस ने छू कर मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
मुद्दतों बअ’द मिरी आँखों में आँसू आए
उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक पूछा तिरा हम-सफ़र कहाँ है
ख़ुदा ऐसे एहसास का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
उसे पाक नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है
कोई फूल लाख क़रीब हो कभी मैं ने उस को छुआ नहीं
चराग़ों को आँखों में महफ़ूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे
ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिए साए
जिन राहों पे देखा है बहुत धूप कड़ी है
गले में उस के ख़ुदा की अजीब बरकत है
वो बोलता है तो इक रौशनी सी होती है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिए बनाया है
घर नया बर्तन नए कपड़े नए
इन पुराने काग़ज़ों का क्या करें
ख़ुदा की इतनी बड़ी काएनात में मैं ने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला
किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी
ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला
गुफ़्तुगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
कितनी सच्चाई से मुझ से ज़िंदगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा
कोई बादल हो तो थम जाए मगर अश्क मिरे
एक रफ़्तार से दिन रात बराबर बरसे
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
अदब की हद में हूं मैं बेअदब नहीं होता।
तुम्हारा तजिकरा अब रोज़-ओ-शब नहीं होता।
कभी-कभी तो छलक पड़ती हैं यूं ही आंखें,
उदास होने का कोई सबब नहीं होता।
कई अमीरों की महरूमियां न पूछ कि बस,
ग़रीब होने का एहसास अब नहीं होता।
मैं वालिदैन को ये बात कैसे समझाउं,
मोहब्बतों में हबस-ओ-नसब नहीं होता।
वहां के लोग बड़े दिलफरेब होते हैं,
मेरा बहकना भी कोई अजब नहीं होता।
मैं इस ज़मीन का दीदार करना चाहता हूं,
जहां कभी भी खुदा का ग़ज़ब नहीं होता।
कोई लश्कर है कि बढ़ते हुए गम आते हैं
कोई लश्कर है कि बढ़ते हुए गम आते हैं
शाम के साये बहुत तेज कदम आते हैं
दिल वो दरवेश है जो आंख उठाता ही नहीं
उसके दरवाजे पर सौ अहल-ए-करम आते हैं
मुझसे क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिए
कभी सोने, कभी चांदी के कलम आते हैं
मैंने दो-चार किताबें तो पढ़ी हैं लेकिन
शहर के तौर-तरीके मुझे कम आते हैं
खूबसूरत-सा कोई हादसा आंखों में लिए
घर की दहलीज पर डरते हुए हम आते हैं
न जी भर के देखा न कुछ बात की
न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की
सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की
मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर अब का
बरसती हुई रात बरसात की
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था।
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला
ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
याद किसी की चाँदनी बन कर कोठे कोठे उतरी है
याद किसी की चाँदनी बन कर कोठे कोठे उतरी है
याद किसी की धूप हुई है ज़ीना ज़ीना उतरी है
रात की रानी सहन-ए-चमन में गेसू खोले सोती है
रात-बेरात उधर मत जाना इक नागिन भी रहती है
तुम को क्या तुम ग़ज़लें कह कर अपनी आग बुझा लोगे
उस के जी से पूछो जो पत्थर की तरह चुप रहती है
पत्थर लेकर गलियों गलियों लड़के पूछा करते हैं
हर बस्ती में मुझ से आगे शोहरत मेरी पहुँचती है
मुद्दत से इक लड़की के रुख़्सार की धूप नहीं आई
इसी लिये मेरे कमरे में इतनी ठंडक रहती है
वो थका हुआ मेरी बाहों में ज़रा सो गया था तो क्या हुआ
वो थका हुआ मेरी बाहों में ज़रा सो गया था तो क्या हुआ
अभी मैंने देखा है चाँद भी किसी शाख़-ए-गुल पे झुका हुआ
जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ
कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ
मुझे हादसों से सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मेरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहदियों से रचा हुआ
वही ख़त के जिस पे जगह जगह दो महकते होंठों के चाँद थे
किसी भूले-बिसरे से ताक़ पर तह-ए-गर्द होगा दबा हुआ
वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लान भी
मगर उस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ
मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ
ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है
वही शख़्स जिसपे अपने दिल-ओ-जाँ निसार कर दूँ
वो अगर ख़फ़ा नहीं है तो ज़रूर बदगुमाँ है
कभी पा के तुझको खोना कभी खो के तुझको पाना
ये जनम जनम का रिश्ता तेरे मेरे दरमियाँ है
मेरे साथ चलनेवाले तुझे क्या मिला सफ़र में
वही दुख भरी ज़मीं है वही ग़म का आस्माँ है
मैं इसी गुमाँ में बरसों बड़ा मुत्मइन रहा हूँ
तेरा जिस्म बेतग़ैय्युर है मेरा प्यार जाविदाँ है
उंहीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक पूछा तेरा हमसफ़र कहाँ है
अपनी खोयी हुयी जन्नतें पा गए जीस्त के रास्ते भूलते भूलते
अपनी खोयी हुयी जन्नतें पा गए जीस्त के रास्ते भूलते भूलते
मौत की वादियों में कहीं खो गए तेरी आवाज़ को ढूंढते ढूंढते
मस्त-ओ-सरशार थे कोई ठोकर लगी आसमान से ज़मीं पर यूँ हम आगये
शाख से फूल जैसे कोई गिर पड़े रक़-से आवाज़ पर झूमते झूमते
कोई पत्थर नहीं हूँ के जिस शक्ल में मुझ को चाहो बनाया बिगाड़ा करो
भूल जाने की कोशिश तो की थी मगर याद तुम आगये भूलते भूलते
ऑंखें आंसू भरी पलकें बोझल घनी, जैसे झीलें भी हों नर्म साए भी हों
वो तो कहिये उन्हें कुछ हंसी आगई बच गए आज हम डूबते डूबते
अब वो गेसू नहीं हैं जो साया करें अब वो शाने नहीं जो सहारा बनें
मौत के बाज़ुओ तुम ही आगे बढ़ो थक गए हम आज घूमते घूमते
दिल में जो तीर हैं अपने ही तीर हैं अपनी ज़ंजीर से पांव ज़ंजीर हैं
संग रेज़ों को हम ने खुदा कर दिया आखिर रात दिन पूजते पूजते
Badr was born in Faizabad, India. He is an alumnus of Aligarh Muslim University. He is married and has three sons Nusrat Badr, Masum Badr, Taiyeb Badr and a daughter Saba Badr. He lived in Aligarh university area during student time and teaching time. He also lived in Meerut, U.P When his house was burnt in riots. He lived in Delhi for some time and then permanently relocated to Bhopal.
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