Madhytika/ मद्यँतिका (मेहंदी) Poetry By Dr. Kumar Vishwas - Jhuti Mohabbat
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Monday, October 14, 2019

Madhytika/ मद्यँतिका (मेहंदी) Poetry By Dr. Kumar Vishwas

Madhytika/ मद्यँतिका (मेहंदी) Dr. Kumar Vishwas

Dr. Kumar Vishwas is a young generation Hindi language Shayar and poet and is also the voice of the youth. Dr. Kumar Vishwas birth on 10th February 1970 in Ghaziabad, Uttar Pradesh. He has performed not only in India but also in the foreign countries like Japan, USA, Dubai, and Singapore. It is the biggest success For dr. kumar Vishwas that he represents India in foreign countries. Dr. Kumar Vishwas has won many hearts with his tremendous piece of Shayaris. If you are one to know more about Dr. Kumar Vishwas Shayari than you are at right place. In this post, we are providing all Sharyri of Dr. Kumarr vishwas in Hindi and English.Generally, he is a poet of relationship and love and you will find great after reading it.

मैं जिस घर में रहता हूँ, उस घर के पिछवाड़े
कुल चार साल की एक बालिका रहती है
जाने क्यूँ मेरी गर्दन से लिपट झूल
वो मुझको सबसे प्यारा अंकल कहती है

है नाम जिसका मद्यन्तिका याकि मेहंदी
सुनता हूँ उसने अपने पिता को नहीं देखा
उसकी जननी को त्याग कहीं बसते हैं वे
कितना कमज़ोर लिखा विधि ने उनका लेखा

धरती पर उसके आने की आहट सुनकर
बस दस दिन ही जननी उल्लास मना पायी
कुंठाओं की चौसर पर सिक्कों की बाज़ी
हारी, लेकर गर्भस्थ शिशु वापस आयी

अब एक नौकरी का बल और संबल उसका
बस ये ही दो आधार ज़िंदगी जीने को
अमृतरूपा इक बेल सींचने की ख़ातिर
वह विवश समय का तीक्ष्ण हलाहल पीने को

वह कभी खेलती रहती है अपने घर पर
या कभी-कभी मुझसे मिलने आ जाती है
मैं बच्चों के कुछ गीत सुनाता हूँ उसको
उल्लास भरी वह मेरे संग-संग गाती है

इतनी पावन, इतनी मोहक, इतनी सुन्दर
जैसे उमंग ही स्वयं देह धर आयी हो
या देवों ने भी नर की सृजन-शक्ति देख
सम्मोहित हो यह अमर आरती गायी हो

वह जैसे नयी कली चटके उपवन महके
धरती की शय्या पर किरणों की अंगड़ाई
वह जैसे दूर कहीं पर बाँसुरिया बाजे
वह जैसे मंडप के द्वारे की शहनाई

वह जैसे उत्सव की शिशुता हो मूर्तिमंत
वह बचपन जैसे इन्द्रधनुष के रंगों का
वह जिज्ञासा जैसे किशोर हिरनी की हो
वह नर्तन जैसे सागर बीच तरंगों का

वह जैसे तुलसी के मानस की चौपाई
मैथिल-कोकिल-विद्यापति कवि का एक छन्द
वह भक्ति भरे जन्मांध सूर की एक तान
वह मीरा के पद से उठती अनघा सुगंध

वह मेघदूत की पीर, कथा रामायण की,
उसके आगे लज्जित कवि-कुलगुरु का मनोज
वह वर्ड्सवर्थ की लूसी का भारतीय रूप
वह महाप्राण की, जैसे जीवित हो सरोज

सारे सुर उसकी बोली के आगे फीके
सारी चंचलता आँखों के आगे हारी
सारा आकाश समेटे अपनी बाहों में
सब शब्द मौन हो जाएँ वह उतनी प्यारी

जब-जब उसके आगत का करता हूँ विचार
मैं अन्दर तक आकुलता से भर जाता हूँ
सच कहता हूँ जितना जीवन जीता दिन-भर
मैं रोज़ रात को उतना ही मर जाता हूँ

मैं सोच रहा हूँ जबकि समय की कुंठाएँ
कल ग्रन्थ पुराने इसके सम्मुख बांचेंगी
कल जबकि नपुंसक फिकरों वाली सच्चाई
इसकी आंखों के आगे नंगी नाचेंगी

जब पता चलेगा कहीं किसी छत के नीचे
मेरा निर्माता पिता आज भी सोता है
इस टॉफ़ी, खेल-खिलोंनो वाली दुनिया में
संबंधों का ऐसा मज़ाक भी होता है

जब पता चलेगा कैसे सिक्कों के कारण
मेरी माँ को पीड़ा-गाली-दुत्कार मिली
लुटकर-पिटकर, समझौतों की हद पर आकर
पैरों की ठोकर ही उसको हर बार मिली

वह दिन न कभी आये भगवान करे लेकिन
वह दिन आएगा, उसको आना ही होगा
यह भोलापन, नासमझी मन में बनी रहे
लेकिन आँखों से इसको जाना ही होगा

तब हो सकता है पीर सहन न कर पाए
सारी मुस्कानें उड़ जाएँ और वह रो दे
जितनी स्वभाव की कोमलता संयोजित की
वह सारी प्रति-हिंसा के मेले में खो दे

जिन आंखों से अब तक उल्लास लुटाया था
उन आंखों से वह आग लगाने की सोचे
जिन होंठों से मुस्कान और बस गीत झरे
उन होंठों से विष-बाण चलाने की सोचे

तब भी क्या मैं कुछ नए खेल करतब कौतुक
दिखलाकर इसको यूहीं बहला पाऊँगा
तब भी क्या अपने सीने पर शीश टिका
आश्वस्ति भरें हाथों से सहला पाऊंगा

लेकिन मैं हूँ यायावर कवि मेरा क्या है
उस दिन मैं जाने कौन कहाँ से लोक उड़ूँ
या गीतों-गज़लों की अपनी गठरी समेट
मैं तब तक सुर के महालोक की ओर मुड़ूँ

मैं अतः तुम्हारी छोटी-सी मुट्ठी में
आशीष भरा ये गीत सौंप कर जाता हूँ
फूलों से रंग रंगे इन पावन अधरों को
बुद्धत्व भरा संगीत सौंप कर जाता हूँ

इस जीवन के सारे उल्लास तुम्हारे हों
सारे पतझर मेरे मधुमास तुम्हारे हों
आँसू की बरखा से धुलकर जो चमक उठें
ऐसे निरभ्र-निर्मल आकाश तुम्हारे हों

पीड़ा का क्या है, पीड़ा तो सबने दी है
लेकिन मेहंदी ! तुम केवल मुस्कानें देना
विद्वेष हलाहल पीकर अमृत छलकाना
शिव वाली परंपरा को पहचानें देना

आँखों की बरखा से सारी कालिख धोकर
इस धरा-वधू की शुभ्र हथेली पर रचना
आकाश भरे इसकी जब माँग कभी मेहंदी !
तब रंग-गंध का बन प्रतीक तुम ही बचना!!

3 comments:

  1. बेहद उम्दा सर , आप मेरे प्रेरणा के मुख्य स्त्रोत हैं , मैं भी कविता लिखने के पहले अक्षर पर आ खड़ी हुई हूं , आपकी प्रतिक्रिया मिलने पर मेरी कविता बन तैयार हो जायेगी ! 🙏🏻

    सरिता ( स्नातक की छात्रा )

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  2. बहुत सुंदर सर

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  3. Only the poet knows the addiction of imagination..

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